अभय कुमार दुबे का कॉलम:दलित राजनीति का भविष्य भी तय करेंगे ये चुनाव

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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर - Dainik Bhaskar

अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर

लोकसभा का यह चुनाव और कुछ बताए या न बताए, लेकिन देश में दलित राजनीति के भविष्य के बारे में जरूर कोई न कोई स्पष्ट संकेत देने वाला है। और यह संकेत उत्तर प्रदेश के परिणामों में सबसे ज्यादा दिखाई देगा।

देश का यह सबसे बड़ा राज्य अस्सी के दशक से ही दलित-बहुजन राजनीति का केंद्र रहा है। इसी प्रदेश ने 2007 में एक ऐसी स्पष्ट बहुमत की सरकार चुनी थी, जिसका नेतृत्व बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती कर रही थीं और जिसे ऊंची जातियों समेत समाज के सभी हिस्सों का कुछ न कुछ समर्थन हासिल था।

दलित राजनीति के ग्राफ में आया असाधारण उछाल इसी जगह रुक गया, और फिर उसमें गिरावट शुरू हो गई जो कमोबेश अभी तक जारी है। 2019 में समाजवादी पार्टी के सहयोग से बसपा ने लोकसभा की दस सीटें तो जीतीं, लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव में अकेले लड़ने पर केवल एक ही सीट जीत पाई।

लोकसभा चुनाव की मुहिम शुरू होने से पहले होने वाली तकरीबन सभी चर्चाओं में अंदेशा जताया जा रहा था कि इस बार फिर से बसपा का सूपड़ा साफ होने वाला है। सर्वेक्षणों ने नतीजा निकाला है कि बसपा ने अगर अकेले चुनाव लड़ा तो वह ज्यादा से ज्यादा पांच से दस फीसदी के बीच वोट ले पाएगी। यानी उसे कोई भी सीट नहीं मिलेगी।

उसका दलित जनाधार (मुख्यत: जाटव वोट) एक तरह से ‘फ्री फ्लोटिंग’ हो जाएगा। उसका एक हिस्सा मायावती के साथ जाएगा, कुछ हिस्सा भारतीय जनता पार्टी में और कुछ समाजवादी पार्टी में चला जाएगा। कुछ समीक्षकों की राय थी कि अकेले चुनाव लड़ने का मतलब होगा किसी न किसी प्रकार भाजपा की मदद करना। इस तरह चुनाव से पहले बसपा भाजपा की बी-टीम होने की तोहमत का सामना भी कर रही थी।

इस ताजा पृष्ठभूमि में बसपा की चुनावी दावेदारी की जांच करने पर कुछ आश्चर्यजनक नतीजे निकलते दिखाई देते हैं। नमूने के तौर पर प्रदेश के एक निर्वाचन क्षेत्र संत कबीर नगर की पड़ताल की जी सकती है। इसे बसपा ने 2009 में जीता था। इसके बाद भाजपा दो बार उसे जीत चुकी है।

करीब बीस लाख मतदाताओं वाले इस क्षेत्र में सवा छह लाख मुसलमान वोट हैं। इसके अलावा यहां साढ़े चार लाख दलित, दो लाख निषाद, तीन लाख ब्राह्मण, सवा लाख राजपूत, सवा लाख से कुछ ज्यादा यादव, सवा लाख से ही कुछ कम कुर्मी और करीब पचास हजार भूमिहार वोटर हैं।

भाजपा ने संजय निषाद को उतारा है, जो भाजपा के साथ अपनी पार्टी के गठजोड़ के कारण प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं। पिछली बार उनके बेटे प्रवीण निषाद ही यहां से जीते थे। समाजवादी पार्टी ने पप्पू निषाद को टिकट दिया है, जो मंत्री रह चुके हैं।

इन दोनों के मुकाबले बसपा ने एक मुसलमान उम्मीदवार सैयद नदीम अशरफ को मैदान में उतारा है, जो राजनीति के मैदान में नए हैं। नतीजे तो 4 जून को आएंगे, पर अगर सिर्फ अंकगणितीय समीकरणों पर गौर किया जाए तो बसपा का उम्मीदवार मुसलमान और दलित वोटरों के एकजुट समर्थन की संभावना के कारण आगे नजर आता है। यहां बसपा किसी के वोट नहीं काट रही, बल्कि अपने वोटों और राजनीतिक प्रभाव की वापसी करती हुई लग रही है।

राजनीति के फैसले दलित-विमर्श की किताबी भाषा में नहीं बल्कि चुनाव के मैदान में बने सामाजिक समीकरणों के जरिए होते हैं। मायावती ने इस कला में एक तरह की उस्तादी हासिल कर रखी है। दरअसल, वे दलित वोटरों पर अपने नियंत्रण का इस्तेमाल करते हुए कुछ इस तरह से टिकट बांटती रही हैं कि उनके गैर-दलित उम्मीदवारों को एक लाभकारी समीकरण मिलता रहा है।

इसे संत कबीर नगर में तो देखा ही जा सकता है, प्रदेश के कई निर्वाचन क्षेत्रों में बसपा का हस्तक्षेप इसी कारण से प्रभावी प्रतीत हो रहा है। कहीं उनके कारण सपा का नुकसान हो रहा है तो कहीं भाजपा को इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है।

मायावती अपनी चुनावी सभाओं को भी इसी शैली में इस्तेमाल कर रही हैं। मसलन, गाजियाबाद (जहां वोट पड़ चुके हैं) में मायावती ने अपनी चुनावी सभा में भाजपा द्वारा राजपूतों का हक मारने का सवाल उठाया और पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजपूत वोटरों के क्षोभ को वाणी दी। मायावती की टिकट-वितरण की रणनीति तभी कटती है जब चुनाव पर या तो कोई जज्बाती मुद्दा हावी हो, या वे टिकट देने में गलती कर दें। जाहिर है कि हर बार ऐसे दांव सही नहीं साबित होते।

इस बार मायावती और उनके उत्तराधिकारी आकाश आनंद ने बार-बार इस बात का खंडन किया है कि उन्हें भाजपा की बी-टीम समझा जाए। दलित राजनीति पर नजदीकी निगाह रखने वाले विद्वान बद्री नारायण ने बताया है कि इस बार बसपा की दावेदारी को दलित वोटरों का विशेष समर्थन मिल रहा है, और वे कह रहे हैं ‘पार्टी के बचायिब, हाथी के झुमायिब’।

दूसरे, मायावती को इस बात का भी एहसास है कि पिछले दस साल में उभरी मुफ्त राशन और सीधे खातों में पैसा पाने वाली लाभार्थी जाति ने भी दलित राजनीति की धार को कुंद किया है। इसलिए वे अपने हर वक्तव्य में गरीबों को सहारा देने के नाम पर बनाए गए इस बंदोबस्त की कड़ी आलोचना कर रही हैं। दरअसल वे एकमात्र ऐसी नेता हैं जिन्होंने ऐसा कहने का साहस किया है। आखिरकार मायावती के लिए यह करो या मरो वाला चुनाव ही तो है।

कैसे हुई धार कुंद...
मायावती को इस बात का एहसास है कि पिछले दस साल में उभरी मुफ्त राशन और सीधे खातों में पैसा पाने वाली लाभार्थी जाति ने दलित राजनीति की धार कुंद की है। वे अपने हर वक्तव्य में गरीबों को सहारा देने के नाम पर बनाए इस बंदोबस्त की आलोचना करती हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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