एन. रघुरामन का कॉलम:क्या मशीनों पर निर्भरता से मानवीय गुणवत्ता खत्म हो रही है?

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

इस सप्ताह नियाग्रा फॉल्स की यात्रा करने के बाद मैं हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में ठिठुर रहा था। उस विशाल झरने से निकलने वाली पानी की धुंध ने वहां मौजूद हर उस व्यक्ति को चपेट में ले लिया था, जिसने खुद को पतले रेनकोट से ढांक रखा था। अधिकांश लोग पास ही मौजूद कॉफी शॉप में चले गए। मैं भी अपवाद नहीं था। पैनेरा ब्रेड मेरी पसंद थी, इसके बावजूद कि उनका आउटलेट स्टारबक्स के बगल में था।

चूंकि उनके कर्मचारी पहले से ही ग्राहकों को अटेंड कर रहे थे, इसलिए मैं सेल्फ ऑर्डरिंग कियोस्क पर गया और डिकैफिनेटेड कॉफी और कुछ क्रोसिएंट का ऑर्डर दिया। इसके लिए मैंने अपनी बहन के यूएस क्रेडिट कार्ड से भुगतान किया। तुरंत ही काउंटर के ऊपर बड़ी स्क्रीन पर उनका नाम दिखाई देने लगा, जिसके नीचे लिखा था- “आपका ऑर्डर तैयार हो रहा है!’

अचानक किसी ने उनका नाम पुकारा। मैं काउंटर पर गया। कर्मचारियों में से एक ने कहा, “माफ कीजिए, हमारे पास डिकैफिनेटेड कॉफी नहीं है और हम आपको पैसे वापस कर देंगे।’ उसने मुझसे यह भी नहीं पूछा कि क्या मुझे इसके बदले में कुछ और चाहिए। उसने मुझसे अपने डेस्क पर रखी मशीन में दोबारा क्रेडिट कार्ड डालने के लिए कहा।

दूसरी तरफ से कर्मचारी ने कुछ पंच किया और तुरंत ही कॉफी की कीमत जितनी धनराशि खाते में लौट आई। मैंने उनसे पूछा, “मशीन ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया कि मेरी पसंद की चीज स्टोर में उपलब्ध नहीं है‌?’ उन्होंने कहा कि, “माफ करें, ये सिस्टम की गड़बड़ियां हैं।’

इसके बाद वे अपने काम में लग गए। मुझे उस स्टोर मैनेजर के चेहरे पर चिंता की कोई लकीर नहीं नजर आई, जिसने वर्चुअल पैसे वापस कर दिए थे। लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि जब मेरी बहन को रिफंड स्लिप दी गई, तो उन्होंने उसे पढ़कर नष्ट कर दिया और कूड़ेदान में फेंक दिया। मैंने पूछा “क्या तुम निश्चित हो कि पैसा वापस मिल गया है?’ उन्होंने कहा, “चिंता मत करो, सिस्टम बहुत मजबूत हैं।’

लेकिन मुझे एहसास हुआ कि विक्रेता और खरीदार के बीच का रिश्ता सिर्फ लेन-देन का रह गया है, इसमें मानवीय भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है। उन्हें इस बात का बिलकुल बुरा नहीं लगा था कि मुझे जो चाहिए था वह नहीं मिला और उन्हें इस बात की परवाह भी नहीं थी कि यह उनके ब्रांड की गलती थी- क्योंकि मेरा मानना है कि कियोस्क मशीन भी कंपनी के ब्रांड का ही प्रतिनिधित्व करती है। क्रोसिएंट लेने के बाद, मैं दूसरी दुकान पर गया।

मैं अपने कुछ छिटपुट खर्चों के लिए 100 डॉलर को छोटे नोटों में बदलना चाहता था। दुकानदार ने यह कहते हुए मना कर दिया कि उसे कंप्यूटर से जुड़े इलेक्ट्रॉनिक कैश बॉक्स को कंप्यूटर में कोई लेनदेन किए बिना खोलने की अनुमति नहीं है। तब मेरी बहन ने मुझसे 2 डॉलर में एक फ्रिज-मैग्नेट खरीदने के लिए कहा।

दुकानदार ने बिल को पंच किया और कंप्यूटर ने कहा, “98 डॉलर लौटाओ।’ उसने करेंसी को निकाला, मशीन में पंच किया और टोटल 98 हो जाने के बाद कैश बॉक्स बंद कर दिया। उसके लिए यह आसान था, क्योंकि मशीन हिसाब रखती है, और उसे इसमें दिमाग नहीं लगाना पड़ता।

यह इस विकसित देश की गतिविधियों की एक झलक है, जहां मनुष्य से मनुष्य के सम्बंध को मनुष्य से मशीन के सम्बंध में बदला जा रहा है। लेकिन इससे मदद करने की इच्छा मशीनों में नहीं स्थानांतरित की जा सकती, क्योंकि उनमें कोई भावनाएं नहीं होती हैं।

फंडा यह है कि इंसान होने के नाते हमें अपने कामकाज में तेजी लाने के लिए मशीनों का इस्तेमाल जरूर करना चाहिए, लेकिन मेरा मानना है कि हमें अपने भावनात्मक पहलुओं को उनके हवाले नहीं कर देना चाहिए। आप क्या कहते हैं?

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