एन. रघुरामन का कॉलम:पश्चिम से उलट भारतीय मशीनों पर भरोसा क्यों नहीं करते?

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

अपनी हालिया यात्राओं में मैंने अमेरिका के विभिन्न स्थानों पर समय बिताया, कुछ अमेरिकी दोस्तों के घर भी गया। इस दौरान मुझे मशीनों के इस्तेमाल को लेकर एक विरोधाभासी पैटर्न दिखा। पश्चिमी लोग उन मशीनों पर भरोसा करते हैं, जो कि जिंदगी में सहूलियत देती हैं, लेकिन हम भारतीय उन मशीनों पर भरोसा नहीं करते।

बर्तन साफ करने वाली डिशवॉशर मशीन का उदाहरण लें। अगर आप भारतीय परिवारों को यह मशीन इस्तेमाल करते हुए देखें, तो नजर आएगा कि वे डिशवॉशर में बर्तन रखने से पहले बर्तनों को धोते हैं या जले हुए, चिकनाई वाले हिस्से को रगड़कर साफ करते हैं।

जबकि स्थानीय लोग गंदे बर्तनों को सीधे मशीन में रखते हैं। उनका मानना है कि बर्तन साफ करना मशीन का काम है ना कि इंसानों का, जो मशीन की मदद करे। वे अपने विचारों को लेकर बेहद स्पष्ट हैं। मशीन को मानव जीवन की मदद करनी है और हमारा समय बचाना है।

और तब मैंने तय किया कि थोड़ा रुककर मशीन का प्रदर्शन देखता हूं। जब मैंने अपनी तेज नजरों से इसकी बारीक कमियां दिखाने की कोशिश की, खासकर जले बर्तनों को साफ करने में, जिनमें हम भारतीय खाना पकाते हैं, तो उनका तर्क था कि इंसानों की तरह मशीनें भी फेल होती हैं, लेकिन उनकी फेल होने की दर इंसानों की तुलना में बहुत कम है।

इस असफलता के पीछे नया कारण जोड़ते हुए उन्होंने अपनी बात पुख्ता की। उन्होंने कहा, मशीन इसलिए फेल नहीं होती कि वह अक्षम हैं या सफाई में रुचि कम है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारतीय रसोई में इस्तेमाल बर्तनों के जले हुए हिस्सों तक उनकी पहुंच नहीं है।

डिशवॉशर का आइडिया पश्चिम में अपनाया गया, वो भी पश्चिम की रसोई को ध्यान में रखकर ना कि भारतीय रसोई को देखते हुए। हालांकि भारतीयों द्वारा पश्चिमी जीवनशैली अपनाता हुआ देखकर मशीन निर्माताओं ने, चिकनाई और ग्रेवी वाले बर्तनों को साफ करने में आने वाली परेशानी का निवारण किए बिना इसे भारतीय बाजार में उतार दिया।

इसके अलावा भारतीयों और पश्चिमी देशों के बर्तनों में काफी अंतर है। पश्चिमी देशों में लोग आमतौर पर मीट को मैरीनेट करके रखते हैं और धीमी आंच पर पकाते हैं। जबकि भारतीयों में खाने को बर्तन के किनारे तक पकाना बहुत सामान्य है और इसके चलते हम बड़े आकार के बर्तन प्रयोग करते हैं, भले ही खाना सिर्फ दो लोगों के लिए पक रहा हो।

इसलिए जब डिशवॉशर में ऐसे बर्तन धोए जाते हैं तो कुछ हिस्सों तक मशीन की पहुंच नहीं होती। इसलिए मशीन से धुलने व सूखने के बाद, अगर लगता है कि बर्तन अच्छे नहीं धुले हैं तो भारतीय इसे सिंक में फिर धोते हैं। (कुछ मामलों में) तब मुझे अहसास हुआ कि बर्तन सूखने के बाद दोबारा गीले ना करने पड़ें, इसलिए भारतीय इन्हें डिशवॉशर में डालने से पहले धोते हैं।

इसलिए, तकनीकी रूप से कहें तो मशीन का प्रयोग ड्रायर के रूप में होता है और बर्तनों को धोने में इस्तेमाल साबुन, पानी व ऊर्जा जैसे संसाधन बेकार हो जाते हैं क्योंकि मानव श्रम पहले ही खर्च किया जा चुका है। मुझे ये तर्क अच्छा लगा।

यही मामला वॉशिंग मशीन में कपड़ों के साथ भी है। हमारी कॉलर व कफ़ वाले हिस्से से जिद्दी मैल भी मशीन नहीं निकाल पातीं। हमारे उष्णकटिबंधीय इलाके में गर्मी, धूल-मिट्टी, पसीना आम बात है। फिर भी हम ऐसी मशीनें खरीदते हैं, जो पश्चिमी देशों को ध्यान में रखकर डिजाइन की गई हैं, फिर खुद वे जिद्दी दाग साफ करते हैं और बाद में डिशवॉशर के जैसे ही वॉशिंग मशीनों को ड्रायर के जैसे उपयोग करते हैं।

फंडा यह है कि पश्चिमी जीवनशैली के हिसाब से बनाईं घरेलू मशीनों का हम जिस तरह इस्तेमाल करते हैं, उसमें कुछ भी गलत नहीं है। आप इनका कैसे इस्तेमाल करते हैं? मुझे लिखें।

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