डेविड नॉट का कॉलम:गाजा में युद्ध-क्षेत्र का सबसे भयावह रूप प्रकट हुआ है

1 week ago 24
डेविड नॉट, लंदन के सेंट मेरी हॉस्पिटल में कंसल्टेंट-सर्जन - Dainik Bhaskar

डेविड नॉट, लंदन के सेंट मेरी हॉस्पिटल में कंसल्टेंट-सर्जन

पिछले 30 सालों में मैंने दुनियाभर के युद्ध-क्षेत्रों में एक शल्य-चिकित्सक के रूप में काम किया है। मैंने सीरिया, यमन, अफगानिस्तान और इराक में विभिन्न संघर्षों के परिणामस्वरूप हताहत होने वाले लोगों का इलाज किया है।

युद्ध के घावों, विस्फोट से होने वाली चोटों और बंदूक की गोली से हुए जख्मों के इलाज के लिए विशेष कौशल की आवश्यकता होती है। कभी-कभी युद्धों में बड़े पैमाने पर मौतें होती हैं। मैंने 30 से अधिक युद्ध-क्षेत्रों में जिन रोगियों को देखा है, उनमें से कुछ को तो इतनी गंभीर चोटें लगी थीं कि दुनिया की सबसे अच्छी हेल्थकेयर यूनिट्स के लिए भी उनका इलाज करना टेढ़ी खीर होता।

हालांकि अधिकांश चोटें ऐसी होती हैं, जिनका मामूली संसाधनों से भी उपचार किया जा सकता है। उन युद्ध-क्षेत्रों में अधिकांश रोगियों को निश्चित समय-सीमा के भीतर अस्पताल पहुंचा दिया गया था, जिससे उनके इलाज के लिए सर्वोत्तम सर्जिकल-निर्णय समय रहते लिए जा सके।

लेकिन गाजा के जैसा मंजर मैंने पहले कभी नहीं देखा। हाल ही में मैंने गाजा के राफा शहर में एक महीने तक काम किया। गाजा पट्टी के दक्षिणी छोर पर स्थित इस शहर के रास्ते पर मीलों तक सहायता-सामग्री ले जाने वाले ट्रक खड़े हुए थे। उनके चक्के जाम थे।

राफा से बीच-रोड तक की सड़क पर अधिकांश एनजीओ का ठिकाना था, लेकिन उसे देखकर झटका लगता था। मैंने सीरिया और बांग्लादेश के शरणार्थी शिविरों में काम किया है, जहां व्यवस्थित रूप से एक-दूसरे से सुरक्षित दूरी पर तम्बू बनाए गए थे, लेकिन यहां मैंने एक छोटी-सी जगह में हजारों-हजार लोगों को ठसे हुए देखा।

वहां पूरे के पूरे परिवार ऐसे थे जिनके सिर पर छत के नाम पर सिर्फ एक पॉलिथीन थी। जो भाग्यशाली थे, वो तम्बू में रह रहे थे। लेकिन इन तम्बुओं में भी बच्चों सहित छह या सात लोग रह रहे थे और वहां बैठने के लिए भी बामुश्किल ही कोई जगह होती थी- सोने की तो बात ही छोड़िए। वहां टॉयलेट की कोई सुविधा नहीं थी। मीलों तक यही दृश्य दिखाई देता था। ​​​​​​

गाजा में मेरा मिशन बंदूक की गोलियों और बम विस्फोटों की चोटों की मरम्मत के लिए अग्रिम पंक्ति में एक सर्जन के रूप में काम करना नहीं था। वहां मुझे हजारों लोगों की सर्जिकल-जटिलताओं से निपटने के लिए दूसरी पंक्ति में रहना था।

यह मेरी कल्पना से कहीं अधिक बदतर था। मैं राफा के एकमात्र कार्यरत अस्पताल में काम कर रहा था। इसमें लगभग 40 बिस्तर और दो ऑपरेटिंग थिएटर थे। लेकिन जब मैं पहुंचा, तब वहां पहले ही 2,000 से अधिक मरीज वार्डों, गलियारों और हर उस जगह पर लेटे थे, जो खाली थी।

एक कमरे में अक्सर छह से आठ मरीज होते थे। कई मरीजों के ऑपरेशन हुए थे और एक-दूसरे से सटे हुए होने के कारण उनमें संक्रमण का खतरा बहुत बढ़ गया था। कई लोगों के घाव ऐसे थे, जो सिल दिए जाने के बावजूद खुल गए थे, और उन पर मवाद जमा था। सभी कुपोषित थे, जिससे उनकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो गई थी।

एक समाज अपने लोगों को जैसी चिकित्सा- देखभाल मुहैया कराता है, वह यहां पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी थी। यमन या सीरिया में भयानक युद्धों के दौरान भी लोगों को कम से कम बुनियादी जीवनरक्षक दवाएं तो दी ही जा सकती थीं। लेकिन गाजा में ऐसा नहीं था।

यहां सभी फार्मेसियां बंद हो चुकी थीं और दवाइयों का टोटा था। डायबिटीज के अलावा कार्डियोलॉजिकल, रीनल, ऑन्कोलॉजिकल, हेमेटोलॉजिकल रोगों से पीड़ित लोगों के लिए रोजमर्रा की दवाएं तक हमें उपलब्ध नहीं थीं। अस्पताल में 12 रीनल डायलिसिस मशीनें थीं, जिनमें से दस खराब हो गई थीं। छाती में संक्रमण या अन्य गैस्ट्रोइंटेस्टिनल बीमारियों के लिए कोई एंटीबायोटिक नहीं थीं।

अराजकता के इस माहौल में हजारों लोग अपने भाग्य के भरोसे थे। संक्रामक रोगों का कहर साफ देखा जा सकता था। छोटे बच्चों में संक्रमण इतना बढ़ गया था कि उनके फेफड़े मवाद से भर गए थे और वे सांस नहीं ले पा रहे थे।

यह अवस्था एम्पायेमा कहलाती है और अभी तक मैंने इसके बारे में किताबों में ही पढ़ा था। यह व्याधि 19वीं सदी में हुआ करती थी। लैब नहीं होने के कारण मरीजों को पैथोलॉजिकल परामर्श नहीं दिया जा सकता था।

इमरजेंसी विभाग खचाखच भरा था और मरीज फर्श पर लेटे थे। जब मैं वहां पर था, तब राफा के उत्तर में मौजूद खान-यूसुफ शहर पर बमबारी हो रही थी और उसमें जख्मी होने वाले लोग 12 घंटे तक कोई उपचार नहीं पा सके थे। उनमें से अधिकतर अगले दिन का सूरज नहीं देख पाए।

एक समाज अपने लोगों को जैसी चिकित्सा-देखभाल मुहैया कराता है, वह गाजा में ध्वस्त हो चुकी है। यमन- सीरिया में भयानक युद्धों के दौरान भी लोगों को कम से कम जीवनरक्षक दवाएं तो दी ही जा सकी थीं। गाजा में ऐसा नहीं है।
(द इकोनॉमिस्ट से)

Read Entire Article