डॉ. अनिल जोशी का कॉलम:राजनीतिक दलों को पर्यावरण के मुद्दों पर घेरना जरूरी​​​​​​​

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डॉ. अनिल जोशी पद्मश्री से सम्मानित पर्यावरणविद् - Dainik Bhaskar

डॉ. अनिल जोशी पद्मश्री से सम्मानित पर्यावरणविद्

उत्तराखंड के जंगलों में आग। पांच की मौत। एक हजार हेक्टेयर जंगल खाक। बेंगलुरु में ऐतिहासिक जलसंकट। 125 झीलें सूखीं। 25 सूखने की कगार पर। देश के 8 राज्यों में लू का अलर्ट। कई शहरों का तापमान 45 डिग्री के पार।

ये तीन ज्वलंत खबरें भारत में जलवायु परिवर्तन की विभीषिका का अहसास कराती हैं। कमोबेश यही हालात दुनियाभर के हैं। केन्या-तंजानिया और ब्राजील में बाढ़ लोगों की जान लील रही है, तो वियतनाम में गर्मी का सौ सालों का रिकॉर्ड टूट गया है।

इस साल दुनिया के पांच सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक क्षेत्रों में मतदान होने जा रहे हैं। इनमें अमेरिका, भारत, इंडोनेशिया, रूस और यूरोपीय यूनियन हैं। ये क्षेत्र दुनिया की एक तिहाई आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं और लगभग यही अनुपात कार्बन उत्सर्जन के मामले में भी है।

भारत में आम चुनाव जारी हैं। लेकिन दुख की बात है कि जलवायु परिवर्तन का मुद्दा राजनीतिक रैलियों, बयानबाजी या परिचर्चाओं से पूरी तरह गायब है। राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में भी जलवायु का मुद्दा महज औपचारिकता भर के लिए है।

विकास पर केंद्रित राजनेता और उनके दल यह कैसे कह सकते हैं कि उनकी समझ पर्यावरण पर अपेक्षित नहीं है, जिसमें कि हवा-मिट्टी-जंगल पानी के संरक्षण की बात भी हो। क्योंकि कल को सरकार बनने के बाद इन्हीं के जिम्मे नदियों, जंगलों, मिट्टी और हवा की सुरक्षा है।

हालिया रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में कहीं पर भी प्राण वायु ठीक नहीं है और कमोबेश 90 फीसदी देशों के यही हालात हैं। इस मामले में भारत अव्वल है, क्योंकि हमारी राजधानी दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है। बढ़ती गर्मी के कारण देश में हृदयाघात के मामले चिंताजनक हैं।

10 साल से ज्यादा आयुवर्ग के लोगों में यह बहुत तेजी से बढ़ा है। देश में हर साल 21 लाख मौतें सिर्फ वायु प्रदूषण के चलते हो रही हैं। ऐसे में सवाल यही पैदा होता है कि हम इन सब घटनाओं के प्रति कितने गंभीर हैं? क्योंकि जब दुनियाभर के ऐसे हालात हों और अपने देश में स्थितियां और भी गंभीर हों तो नेताओं की यह चुप्पी सबके लिए घातक सिद्ध होगी।

प्रतीत होता है कि हम ‘डे जीरो’ को भी भूल चुके हैं, जब 19 जून 2019 को पूरे चेन्नई शहर में पीने को पानी नहीं था। तभी आशंका जताई गई थी कि दुनियाभर के 200 शहर और 10 मेट्रो सिटी ‘डे जीरो’ की ओर बढ़ रहे हैं। इनमें भारत का बेंगलुरु भी शामिल था। तबके कयास अब हकीकत बनकर सामने आ रहे हैं।

बेंगलुरु पिछले एक महीने से ऐसी ही गंभीर स्थिति झेल रहा है। लोग पानी के लिए टैंकर पर निर्भर हैं। आंकड़े बताते हैं कि दक्षिण भारत के करीब 36 प्रतिशत रिजर्वायर में पानी की कमी है। महाराष्ट्र में यह आंकड़ा करीब 37 प्रतिशत है।

तेलंगाना के हालात और तेजी से गंभीर हो रहे हैं। देश के भूमिगत जल के स्रोत औसतन 40 प्रतिशत सूख गए हैं। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान में भूमिगत जल के पूरी तरह खत्म हो जाने का खतरा है। विकास जनित सुविधाओं का लाभ हम तभी उठा पाएंगे जब एक बेहतर व स्वस्थ जीवन जिएंगे।

बीमार शरीर को पहले बेहतर हवा, मिट्टी, जंगल और पानी चाहिए। दुनिया लंबे समय तक सुविधा और सुख में नहीं रह पाएगी। क्योंकि आज तक हमने नीति, नेता व नेचर को रणनीतिक तरीके से जोड़ कर नहीं लिया। इस विषय पर हमने राजनीतिक दलों से कभी गंभीरता से सवाल नहीं किए।

अजीब बात तो यह भी है कि कौन-सा राजनीतिक दल या नेता हवा, मिट्टी या पानी का सीधा लाभार्थी न रहा हो। अब चुनावों के समय में पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को मुख्यधारा में शामिल करना होगा, तभी बेहतर कल की उम्मीद की जा सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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