विराग गुप्ता का कॉलम:संविधान बदलने जैसी बातों में कोई दम नजर नहीं आता

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विराग गुप्ता, सुप्रीम कोर्ट के वकील, 'अनमास्किंग वीआईपी' पुस्तक के लेखक - Dainik Bhaskar

विराग गुप्ता, सुप्रीम कोर्ट के वकील, 'अनमास्किंग वीआईपी' पुस्तक के लेखक

चुनावों में हो रही बयानबाजी से साफ है कि लोकतंत्र अब कॉमेडी सर्कस बन गया है। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा फ्री राशन, बिजली, पानी और वैक्सीन आदि का लाभार्थी है, वहां विरासत टैक्स पर हो रही बहस बेमानी है।

लोकसभा में विशाल बहुमत वाले नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी ने संविधान बदले बगैर एजेंडा हासिल किया। भाजपा अपने संकल्प पत्र में किए गए वायदों को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन कर सकती है तो फिर उन्हें संविधान बदलने की कवायद करने की क्या जरूरत है? इस बेतुकी बहस से जुड़े 6 पहलुओं को समझना जरूरी है-

1. संसदीय लोकतंत्र- जनता को स्वतंत्रता, समानता, न्याय और कल्याणकारी राज्य दिए जाने के लिए संसद, सरकार और सुप्रीम कोर्ट के लिए संविधान में प्रावधान हैं। नेहरू ने केबिनेट प्रणाली को दरकिनार किया तो इंदिरा गांधी ने नौकरशाही और संवैधानिक संस्थानों पर वर्चस्व की नींव रखी। प्रधानमंत्री मोदी सर्वेसर्वा तरीके से सिस्टम को नियंत्रित करने में सफल हैं तो नई सरकार को संविधान बदलने की क्या जरूरत है?

2. धर्मनिरपेक्षता- इंदिरा गांधी ने 42वें संशोधन से धर्मनिरपेक्षता को संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया था। इंदिरा के संविधान संशोधन के पहले नेहरू के शासनकाल में संविधान और देश दोनों धर्मनिरपेक्ष थे। इसलिए भविष्य में धर्मनिरपेक्ष शब्द को संविधान संशोधन से हटाने से संविधान के बेसिक ढांचे का उल्लंघन कैसे होगा?

उस शब्द के हटाने के बावजूद देश धर्मनिरपेक्ष रहेगा। सिर्फ राम के चित्र को संविधान की किताब में शामिल करने से नेताओं को सनातनी लाभ भले ही मिल जाए। इससे ना तो भारत हिन्दू राष्ट्र बनेगा और ना ही आम जनता को रामराज्य का सुख और सुरक्षा मिलेगी।

3. स्वतंत्रता और न्याय- आपातकाल और उसके बाद पुलिस, सीबीआई, ईडी जैसी एजेंसियां राज्य और केन्द्र सरकार के इशारे पर लोगों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करती आ रही हैं। जेलों में बंद लाखों कैदी और करोड़ों मुकदमों के बोझ से साफ है कि अदालतें भी जीवन के अधिकार और कानून के शासन को लागू करने में विफल हो रही हैं। लेकिन पुलिस, न्यायिक सुधार और सुशासन से स्वतंत्रता और न्याय का हक सुनिश्चित करने के लिए विपक्ष के पास भी ठोस एक्शन प्लान नहीं है।

4. समाजवाद और समानता- 42वें संशोधन से संविधान में शामिल हुआ समाजवाद अब मुक्त- अर्थव्यवस्था के दौर में अप्रासंगिक- सा हो गया है। एक फीसदी अमीरों के पास 40 फीसदी से ज्यादा संपत्ति है। एप्स और सोशल मीडिया से 72.4 करोड़ लोग भारत में एआई का इस्तेमाल शुरू कर चुके हैं।

उसके बाद प्रतिस्पर्धा आयोग और सरकार एआई के आकलन की तैयारी कर रही हैं। डेटा सुरक्षा कानून और डिजिटल कम्पनियों पर टैक्स की वसूली से बेरोजगारी और गरीबी कम करने के बजाय विरासत टैक्स पर बेतुकी बहस हो रही है।

विकास के पहिए को आगे बढ़ाने के बजाय आरक्षण के अल्पकालिक प्रावधान को हमेशा बनाए रखने की नेताओं में होड़ है। गरीबों को जेल से बेल नहीं मिलती लेकिन बड़े वकीलों की फीस देने वालों को वीआईपी जस्टिस मिल जाता है। ऐसे में समानता का सिद्धांत संविधान की किताबों में कैद है।

5. संघीय ढांचा- नोटबंदी के बाद कानूनी अहमियत के बगैर रद्द किए हुए नोट कई महीनों तक चलते रहे। कर्फ्यू लगाने का अधिकार जिला प्रशासन के पास है। लेकिन कोरोना से निपटने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन लागू कर दिया गया।

नए आपराधिक कानून और नागरिकता कानून में संशोधन को राज्यों से परामर्श के बगैर लागू कर किया गया। जब नेताओं का एजेंडा कानूनी तिकड़मों से ही पूरा हो जाए तो वे संविधान बदलने की जद्दोजहद क्यों करेंगे?

6. संकल्प पत्र के वायदे- 370 की समाप्ति के लिए संविधान में संशोधन नहीं हुआ। राम मंदिर निर्माण के लिए भी वायदे के अनुसार केंद्र सरकार ने कानून नहीं बनाया। काशी-मथुरा विवाद खत्म करने के लिए भी धर्मस्थल कानून में संसद से बदलाव के बजाए, अदालत के पाले में गेंद डाल दी गई। मनुस्मृति, लिव-इन के दो ध्रुवों के बीच समान नागरिक संहिता पर कानून बनाना केंद्र सरकार के लिए टेढ़ी खीर है। शायद इसीलिए यूसीसी पर कानून बनाने के बजाय उत्तराखंड राज्य में प्रयोग हो रहे हैं।

नरसिम्हाराव की अल्पमत वाली गठबंधन सरकार ने सियासी सहमति से अनेक सुधार किए। ‘एक देश एक चुनाव’ लागू करने के लिए विशाल बहुमत से ज्यादा राज्यों में विपक्ष की सरकारों की सहमति जरूरी होगी। इसलिए मेन कोर्स के सुधार के लिए ज्यादा सीटों से ज्यादा गवर्नेंस पर फोकस बढ़ाने की जरूरत है।

आबादी का बड़ा हिस्सा फ्री राशन, बिजली, पानी आदि का लाभार्थी है। ऐसे में विरासत टैक्स पर हो रही बहस बेमानी है। जहां सरकारें संविधान बदले बगैर अपने एजेंडा चला सकती हैं, वहां संविधान बदलने की बात बेतुकी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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