सुनीता नारायण का कॉलम:इस मानसून में वर्षाजल को सहेजें, भूजल को रिचार्ज करें

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सुनीता नारायण प्रतिष्ठित पर्यावरणविद् और सीएसई की डायरेक्टर जनरल हैं - Dainik Bhaskar

सुनीता नारायण प्रतिष्ठित पर्यावरणविद् और सीएसई की डायरेक्टर जनरल हैं

कई साल पहले, मैं अपने सहयोगी दिवंगत अनिल अग्रवाल के साथ चेरापूंजी गई थी। वहां हमने एक साइनबोर्ड देखा, जिस पर लिखा था पानी की कमी है, ऐहतियात से इस्तेमाल करें। यह दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश वाला स्थान था! यहां मिलीमीटर में नहीं, मीटर में बारिश होती है। फिर हम जैसलमेर गए।

यह रेगिस्तानी शहर है। वहां हमें पता चला कि एक समय यह कारवां के रुकने की जगह हुआ करती थी; यहां फलता-फूलता व्यापार था। यहां साल भर में कुल 50 मिलीमीटर बारिश होती है। तो फिर यह शहर कैसे विकसित हुआ? जवाब है, बारिश की एक-एक बूंद तालाबों में एकत्र की गई, और हर घर की छत से पानी सहेजा गया। हर जलग्रहण क्षेत्र को संरक्षित किया गया।

हम थोड़ा आगे बढ़े तो हमें उलटी तश्तरी जैसी एक आकृति दिखी। जब हमने रुककर उसके बारे में पूछा तो हमें बताया गया कि यह जल संचयन के लिए एक ढंका हुआ कुआं था, जिसमें एक जलग्रहण क्षेत्र था। इसे कुंडी कहा जाता है। पानी का गणित सरल है, लेकिन बहुतेरे इंजीनियरों को यह समझ नहीं आता : 1 हेक्टेयर भूमि; 100 मिलीमीटर बारिश; इससे आप 100 मिलियन लीटर तक पानी का संचयन कर सकते हैं!

हमने गजेटियरों को खंगाला और यह समझने की कोशिश की कि भारत ने इतनी कम बारिश में सभ्यता का निर्माण कैसे किया। हमने सीखा कि हर क्षेत्र ने अपनी तकनीक को निखारा है। पूर्वोत्तर में बांस की सिंचाई प्रणाली थी, जहां झरनों से बांस के जरिए पानी लाया जाता था; हिमालय में गुल और कुल थे; ठंडे रेगिस्तान लद्दाख में झिंग; और दक्षिण भारत के अविश्वसनीय झरने तो स्पेस से भी देखे जा सकते हैं।

तर्क सरल था : बारिश को रोकें; भूजल को रिचार्ज करें। हमने इसे अपनी पुस्तक ‘डाइंग विजडम’ में प्रस्तुत किया। हमने इसे ‘डाइंग’ इसलिए कहा, क्योंकि धीरे-धीरे हम यह ज्ञान-प्रणाली खो रहे हैं। जब अंग्रेज भारत आए, तो उन्हें स्थानीय जल संचयन परंपराओं की समझ नहीं थी। वे ऐसी दुनिया से आए थे, जहां पानी केंद्रीकृत था और राज्य उसका प्रबंधन करता था।

यह लोक निर्माण विभाग का काम था। व्यवस्था पानी को चैनलाइज करने की ओर बढ़ी; पानी को रोकने के लिए नहरें और बांध बनाए गए। इसमें कुछ गलत नहीं है, लेकिन यह हमारी जरूरतों को पूरा नहीं करता; और यह प्रकृति की व्यवस्था के अनुकूल भी नहीं है।

अब हमारे पास नहरें हैं, सिंचाई व्यवस्था है। इसे मेजर इरिगेशन कहते हैं। छोटी सिंचाई भूजल से होती है। लेकिन सच्चाई यह है कि हमारी अधिकांश कृषि-भूमि वर्षा पर निर्भर है (सरकारी आंकड़ों के अनुसार 50 प्रतिशत); और ये हमारे भोजन का लगभग 40 प्रतिशत उत्पादन करती है।

इसी तरह, 60-70 प्रतिशत भूमि की सिंचाई भूजल से होती है; सतही प्रणालियों से नहीं और भूजल ही पेयजल का बड़ा हिस्सा प्रदान करता है। तो आइए, उत्पादकता बढ़ाने के लिए वर्षा को संचित करने के महत्व को समझें; स्थानीय और लचीली खाद्य प्रणालियों का निर्माण करें।

पिछले कुछ वर्षों में, वर्षा जल संचयन की आवश्यकता का अहसास सघन हुआ है। इस क्षेत्र में शायद दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम मनरेगा है- जिसमें लोगों के श्रम का उपयोग प्राकृतिक पूंजी बनाने के लिए किया जाता है। इस कार्यक्रम के तहत लाखों तालाब खोदे गए हैं; नहरों की मरम्मत की गई है; चेकडैम बनाए गए हैं। लेकिन एक बुनियादी खामी के साथ; यह कार्यक्रम अपने द्वारा बनाई संपत्ति में निवेश नहीं करता। यह केवल काम उपलब्ध कराने के बारे में है; जो यकीनन महत्वपूर्ण है, लेकिन पर्याप्त नहीं।

लेकिन सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। जहां लोगों ने व्यवस्थाएं बनाई हैं; जलग्रहण क्षेत्र को संरक्षित किया है, वहां जादू देखने लायक है। हम मनरेगा से जुड़े उन ग्रामीणों के पास गए, पानी ने जिनकी आजीविका को सुरक्षित किया था। उनका रिवर्स माइग्रेशन हो रहा था क्योंकि वे खेती की ओर लौट रहे थे; अपनी भूमि-जल संपदा से अर्थव्यवस्था का निर्माण कर रहे थे।

यह आश्चर्य की बात नहीं है। औपनिवेशिक काल की सबसे बड़ी मार भूमि-राजस्व प्रणाली पर पड़ी थी। भारत के शासक राजकोषीय प्रोत्साहन के माध्यम से जल प्रणालियों में निवेश को बढ़ावा देते थे। भू-राजस्व वर्ष के लिए फसल उपज के प्रतिशत पर आधारित होता था; किसानों को उत्पादकता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता था; वे जल संरचनाएं बनाते थे। यह सबसे बड़ा दान था। कहा जाता है कि उदयपुर में पिछोला झील खानाबदोशों द्वारा बनाई गई थी। लेकिन अंग्रेजों ने इसे बदल दिया।

आइए, बारिश के पानी को इकट्ठा करने के अभियान में शामिल हों। नाले, झील, तालाब और पोखर भारत के नए मंदिर हैं; उन्हें संरक्षित करने और पुनर्जीवित करने का प्रयास हमारी तपस्या है; जल सुरक्षित भविष्य के लिए हमारी तीर्थयात्रा है!
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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