अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
पहले दौर (102 सीटें) के मतदान-प्रतिशत में दिख रही सात फीसदी की बड़ी गिरावट ने राजनीति के पंडितों के बीच इस एहसास को पुख्ता कर दिया है कि लोकसभा के इस चुनाव में वोटरों के बीच उत्साह की कमी है। आम तौर पर लोगों में अनमनापन दिखता है।
मतदाताओं में सत्ताधारी दल के खिलाफ कोई जाहिर नाराजगी तो नहीं है, लेकिन उसे फिर से चुनने के लिए किसी तरह का जोश भी दिखाई नहीं दे रहा है। विपक्षी दल भी सरकार के खिलाफ और अपने पक्ष में कोई राजनीतिक लहर पैदा कर पाने में असमर्थ लग रहे हैं। शेयर मार्केट में भले तेजड़ियों का जोर हो, चुनावी राजनीति पर मंदड़िए ही हावी दिख रहे हैं।
ऐसे ठंडे माहौल का प्रमाण दो आंकड़ों से मिलता है। सीवोटर-एबीपी के एक सर्वेक्षण में 57 हजार से ज्यादा लोगों से पूछा गया कि आपकी समस्याएं (बेरोजगारी, महंगाई, घटती आमदनी, भ्रष्टाचार वगैरह) दूर करने की क्षमता किस पार्टी के पास लग रही है।
इसके जवाब में 32 फीसदी ने भारतीय जनता पार्टी और 18 फीसदी ने कांग्रेस का नाम लिया। लेकिन 46 फीसदी लोगों का कहना था कि उन्हें यह क्षमता किसी पार्टी में नहीं दिखती। जिन चार फीसदी लोगों ने ‘पता नहीं’ वाला जवाब दिया, उन्हें भी तार्किक दृष्टि से इसी तीसरी श्रेणी में रखा जा सकता है।
यानी पचास फीसदी लोगों को अपनी समस्याओं से निजात दिलाने के लिए किसी पार्टी पर भरोसा नहीं है। यह आंकड़ा बताता है कि दस साल तक शासन करने के बावजूद सत्ताधारी दल ज्यादा से ज्यादा एक तिहाई लोगों का भरोसा ही जीत पाया है, और पूरे एक दशक तक विरोध की राजनीति करने वाले दल पांचवें हिस्से से भी कम लोगों को उम्मीद बंधा पाए हैं।
दूसरा आंकड़ा 18 से 25 साल के बीच के वोटरों से ताल्लुक रखता है। वोट डालने के लिए सबसे ज्यादा उत्सुकता पहली और दूसरी बार वोट डालने वाले मतदाता को होनी चाहिए। नौजवान बेचैनी से 18 साल पूरे होने का इंतजार करते हैं, ताकि वोटर के तौर पर अपना पंजीकरण करवाने के बाद मतदान केंद्र की तरफ जाने का अधिकार प्राप्त कर सकें।
लेकिन चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि इस बार पहली बार वोट डालने के लिए सारे देश में औसतन 38 फीसदी नए मतदाताओं ने ही पंजीकरण करवाया है। 18 वर्ष पूरे कर चुके 62 फीसदी युवकों में वोट डालने की ललक ही नहीं है।
जाहिर है कि हमारा युवा मन, राज्यों और केंद्र में जिस तरह की गवर्नेंस आजकल मिल रही है, उसमें किसी तरह की आशा की किरण नहीं देखता। चुनावशास्त्रियों की बातों पर अगर यकीन किया जाए तो 2019 में युवाओं ने बढ़-चढ़ कर वोट किया था, जिससे भाजपा को बेहतर वोट प्रतिशत और ज्यादा सीटों के साथ वापसी करने में मदद मिली थी।
उस चुनाव में भाजपा बहुतेरी सीटों पर बहुत कम अंतर से जीती थी। केवल उत्तर प्रदेश में ही ऐसी सीटों की संख्या 18 थी। इस बार का कम मतदान ऐसी सीटों के समीकरणों को उलट-पुलट सकता है। आखिरकार ऐसी क्या बात है जो वोटरों में उत्साह नहीं पैदा हो रहा है?
अगर मान लिया जाए कि वोटर गवर्नेंस से संतुष्ट नहीं हैं तो फिर वे सरकार से नाराज क्यों नहीं हैं? आंकड़े तो बता रहे हैं कि कम ही सही पर विपक्ष के मुकाबले उनमें सरकारी पार्टी पर भरोसा थोड़ा अधिक ही दिखता है।
लेकिन दूसरी तरफ सीएसडीएस-लोकनीति का बड़े करीने से किया गया सर्वेक्षण बताता है कि इस सरकार को तीसरी बार चुनने की इच्छा व्यक्त करने वाले वोटरों की संख्या तीन फीसदी गिर गई है। यानी पिछली बार विपक्ष और सरकार के बीच आठ फीसदी का अंतर था, जो इस बार घटकर पांच फीसदी ही रह गया है। राजनीतिशास्त्रियों के मुताबिक सत्ताधारी दल के लिए यह कोई आरामदेह स्थिति नहीं है, और न ही यह विपक्ष को किसी भी तरह से आश्वस्त करने के लिए पर्याप्त है।
भारत के चुनावी इतिहास की जानकारी रखने वालों ने याद दिलाया है कि जब पं. जवाहरलाल नेहरू ने देश की जनता के सामने 1962 में तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का दावा पेश किया तो उन्हें 361 सीटें मिली थीं। कांग्रेस के बाद लोकसभा में सबसे बड़ा दल कम्युनिस्ट पार्टी थी, लेकिन उसके पास केवल 29 सीटें थीं।
ये संख्याएं बताती हैं कि नेहरू को तीसरी बार भी मतदाताओं ने शिद्दत से पसंद किया था। लेकिन आज जमाना बदल चुका है। क्षेत्रीय राजनीति की परिघटना उभर आई है, जिसने राष्ट्रीय पार्टियों के प्रभाव-क्षेत्रों को पहले के मुकाबले सीमित कर दिया है।
दूसरे, सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के नाम पर पिछले दस साल से लगातार सभी तरह के सत्तारूढ़ दल अपने-अपने तरीके से लाभार्थियों की एक दुनिया बनाने में लगे हुए हैं। इनमें सबसे आगे केंद्र की एनडीए सरकार ही है, जिसने लोगों के खातों में सीधे आर्थिक मदद भेजने का सिलसिला शुरू किया है। प्रश्न यह है कि क्या इस ‘डायरेक्ट ट्रांसफर ऑफ मनी’ की मतदान के प्रति इस अनमनेपन में कोई भूमिका है?
मौजूदा हालात इशारा करते हैं कि रोजगार देने और महंगाई घटाने में अर्थव्यवस्था की अक्षमता से पैदा होने वाला क्षोभ अभी तक तीखे राजनीतिक गुस्से में नहीं बदल पाया है। विपक्ष की कमजोरी ने भी इसमें हाथ बंटाया है, और लाभार्थियों की नई दुनिया ने भी राहत की छोटी-छोटी रकमों के जरिए लोगों में और इंतजार करने की क्षमता पैदा की है।
मतदाताओं में क्षोभ तो है, पर राजनीतिक गुस्सा नहीं...
मौजूदा हालात इशारा करते हैं कि रोजगार देने और महंगाई घटाने में अर्थव्यवस्था की अक्षमता से पैदा होने वाला क्षोभ अभी तक तीखे राजनीतिक गुस्से में नहीं बदल पाया है। विपक्ष की कमजोरी ने भी इसमें हाथ बंटाया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)