पवन के. वर्मा का कॉलम:गरीबी के महासागर के बीच अमीरी के चंद द्वीप बसे हैं

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पवन के. वर्मा लेखक, राजनयिक,  पूर्व राज्यसभा सांसद - Dainik Bhaskar

पवन के. वर्मा लेखक, राजनयिक, पूर्व राज्यसभा सांसद

विरासत कर पर सैम पित्रोदा ने जो टिप्पणी की, वह अनुचित थी। वेल्थ-क्रिएशन करने वालों को निशाना बनाना असमानता का समाधान नहीं है, क्योंकि समस्या प्रणालीगत है। लेकिन यह भी सच है कि हमारे देश में आर्थिक विषमता का सवाल बहुत ही गंभीर है, और कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि क्या हमने इसे बहुत आसानी से स्वीकार कर लिया है?

दुनिया के तमाम देशों में आर्थिक विसंगतियां हैं, लेकिन भारत में क्या हम न केवल इसे अधिक सहजता से स्वीकारते हैं, बल्कि कुछ मायनों में इसे उचित भी ठहराते हैं? मैं ये बात इसलिए कह रहा हूं क्योंकि कई विदेशियों- जो भारत के बहुत बड़े प्रशंसक हैं- ने मुझसे चर्चा में ये कहा है कि आर्थिक रूप से संपन्न भारतीय अपने आसपास व्याप्त गरीबी के प्रति इतने असंवेदनशील क्यों रहते हैं?

विशेषाधिकार-प्राप्त लोग अभावों के हालात को हल्के में क्यों लेते हैं? इस पर गंभीर चिंतन जरूरी है। बहुत लंबे समय से हम एक हाइरेर्कियल-समाज रहे हैं यानी हमारे यहां कौन ऊपर है और कौन नीचे है, इसका चिंतन हमेशा रहता है। जाति व्यवस्था- जिसकी परिकल्पना शुरुआत में लोगों की पेशागत विभिन्नता के आधार पर की गई थी- बाद में निचली जातियों, विशेषकर दलितों के शोषण, उत्पीड़न और उनके साथ भेदभाव की एक संस्थागत प्रणाली में बदल गई।

शक्तिशाली लोगों ने धर्मशास्त्रों से चुनिंदा उद्धरण देकर इसके लिए औचित्य भी गढ़ा। लोकतांत्रिक सशक्तीकरण के कारण इस भेदभावपूर्ण व्यवस्था की पकड़ आज कम भले हो गई हो, लेकिन वह अभी भी व्यापक रूप से मौजूद है। लगभग रोज ही भोजन या पानी को ‘अपवित्र’ करने, या यहां तक कि घोड़े की सवारी करने और मूंछ रखने तक के लिए दलित पुरुषों को पीटने की खबरें आती हैं। वहीं दलित महिलाओं के साथ दुष्कर्म रोजमर्रा की बात है।

असमानता के प्रति यही उदासीनता हमारे आर्थिक जीवन में भी दिखाई देती है। मध्यम वर्ग तो उलटे इस बात पर गर्व करता है कि आज भारत में दुनिया में तीसरे सबसे ज्यादा ‘डॉलर-अरबपति’ हैं, लेकिन वह इस तथ्य को नजरअंदाज कर देता है कि हमारी लगभग 60 प्रतिशत आबादी- यानी लगभग एक अरब लोग- प्रतिदिन 250 रुपए से कम पर जीवन यापन करते हैं। वहीं देश के 21 प्रतिशत- यानी लगभग 25 करोड़ लोग रोज 150 रुपए से कम वेतन पर काम करते हैं।

हम इस बात का उत्सव तो मनाते हैं- जो कि उचित भी है- कि भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था है, लेकिन क्या हम यह प्रश्न भी पूछते हैं कि जीडीपी में हो रही वृद्धि देशवासियों तक वितरित हो पा रही है या नहीं? भारत आज शायद दुनिया का सबसे आर्थिक रूप से विषम देश है। 1 प्रतिशत धनाढ्यों के पास राष्ट्रीय संपत्ति का 40.1 प्रतिशत और आय का 22.6 प्रतिशत हिस्सा है। शीर्ष 10 प्रतिशत अमीरों के पास देश की 77 प्रतिशत संपत्ति है।

दूसरी तरफ, पिरामिड के निचले 50 प्रतिशत लोगों की आय में बमुश्किल 1 प्रतिशत की ही वृद्धि देखी गई है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 125 देशों में से 111वें स्थान पर है। सरकार ने इस सूचकांक की प्रणाली की आलोचना की है, लेकिन तथ्य यह है कि हमारी 80 प्रतिशत आबादी आज भी सरकार द्वारा दी जाने वाली मासिक खाद्य सहायता पर जीवित है।

नीति आयोग का दावा है कि 2015 से 2025 के बीच करीब 13.5 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) से ऊपर उठाया गया है। यह एक सराहनीय उपलब्धि है। लेकिन बीपीएल की परिभाषा पर काफी बहस चलती आ रही है। और अगर कुछ को इसके ऊपर माना जाता है, तो वे भी ‘अनिश्चित’ होते हैं। यानी वो लोग जो अनिश्चित रूप से गरीबी के किनारे पर मौजूद हैं। एक बीमारी, शादी या शैक्षिक खर्च के कारण वे फिर से बीपीएल की श्रेणी में आ जाते हैं। उदासीनता सबसे बुरी होती है।

विशेषाधिकार-प्राप्त लोग चकाचौंध मॉल, महंगे रेस्तरां और चमचमाती दुकानों से निकलकर अपनी वातानुकूलित कारों में प्रवेश कर जाते हैं, फुटपाथ या ओवर ब्रिज के नीचे रह रहे लोगों पर ध्यान दिए बिना। उन्हें लगता है कि ये दोनों तरह के भारत हमेशा इसी तरह से एक साथ रह सकते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि सफल लोग अलग-थलग होकर अपना पृथक-गणतंत्र नहीं बना सकते।

वे गेटेड-कम्युनिटीज़ का निर्माण कर सकते हैं, लेकिन जब लगभग हर समृद्ध आवासीय क्षेत्र के बगल में एक झुग्गी बस्ती हो तो वे खुद को कैसे सुरक्षित रख सकेंगे? महंगाई, बेरोजगारी और घटती आय के मद्देनजर यह मध्यम वर्ग भी क्या अपने कल्पना-लोक में इस सबसे अप्रभावित रह सकता है?

  • क्या लोकतंत्र में इस स्तर की आर्थिक विषमता चल सकती है? वेल्थ-क्रिएशन करने वालों का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन साधनहीनों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हम इसे देखकर अपनी आंखे नहीं फेर सकते।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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