मकरंद परांजपे का कॉलम:इस बार यूपी में भाजपा की तीन प्रमुख रणनीतियां हैं

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मकरंद परांजपे लेखक, चिंतक, जेएनयू में प्राध्यापक - Dainik Bhaskar

मकरंद परांजपे लेखक, चिंतक, जेएनयू में प्राध्यापक

पहले प्रधानमंत्री- पं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर मौजूदा नरेंद्र मोदी तक- भारत के चौदह सरकार-प्रमुखों में से नौ उत्तर प्रदेश से चुने गए हैं। यूपी में 24.1 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं, जो भारत, चीन, अमेरिका और इंडोनेशिया को छोड़कर दुनिया के किसी भी देश से अधिक आबादी है। प्रत्येक आम चुनाव में यह राज्य भारत की संसद के 543 लोकसभा सदस्यों में से 80 का योगदान देता है।

दूसरे शब्दों में, हर सात लोकसभा सांसदों में से एक से अधिक उत्तर प्रदेश से चुने जाते हैं। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि उत्तर प्रदेश राष्ट्रीय सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उत्तर प्रदेश में बड़ी हार झेलने वाली पार्टी शायद ही कभी केंद्र में शासन कर पाती है।

2014 में नरेंद्र मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़ा था। उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में 80 में से 71 सीटें मिली थीं। पिछले चुनावों में हालांकि भारतीय जनता पार्टी को इससे 9 सीटें कम मिलीं, लेकिन 62 सीटों का आंकड़ा फिर भी प्रभावशाली था। इस बार के चुनावों में भी हिंदी पट्टी का यह राज्य राजनीतिक विश्लेषकों के लिए चर्चाओं का केंद्र-बिंदु बना हुआ है और वहां भाजपा और उसके प्रतिद्वंद्वियों के प्रदर्शन पर बारीकी से नजर रखी जा रही है।

केंद्र में नरेंद्र मोदी और राज्य में योगी आदित्यनाथ की डबल इंजन की सरकार के कारण भाजपा ने यूपी के मतदाताओं पर मजबूत पकड़ बना ली है। पार्टी की दीर्घकालिक रणनीति के तीन प्रमुख बिंदु हैं। पहला है, डबल इंजन का लाभ उठाकर राज्य को तेजी से विकास की राह पर आगे बढ़ाना, खासकर बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में।

यह केंद्र और राज्य के खजाने से बड़े पैमाने पर और समन्वित निवेश से ही संभव है। परिणाम भी नजर आ रहे हैं। एक समय पिछड़ा, यहां तक कि बीमारू राज्य माना जाने वाला यूपी आज नए हवाई अड्डों, पुलों और सड़कों और सरकारी इमारतों से भरा पड़ा है। न केवल बड़ी परियोजनाओं, बल्कि वंचित ग्रामीण जनता के लिए शौचालय, घर और स्कूलों के निर्माण ने भी वास्तविक अंतर पैदा किया है।

दूसरा है, राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति, जिसमें योगी आदित्यनाथ के राज में नाटकीय रूप से सुधार हुआ है। गुंडों, डॉनों और बाहुबलियों का बोलबाला खत्म होता जा रहा है। शहरों और कस्बों की सड़कें अब पहले की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं। अपराध दर में कमी आई है।

उत्तर प्रदेश को अब महिलाओं के लिए असुरक्षित नहीं माना जाता। और तीसरा, भाजपा की रणनीति का महत्वपूर्ण लेकिन विवादास्पद हिस्सा है धार्मिक आधार पर वोट बैंकों का एकीकरण। परंपरागत रूप से, सभी राजनीतिक दल यूपी की बड़ी और कुछ जगहों पर प्रभावशाली मुस्लिम आबादी को आकर्षित करने के प्रयास करते रहे हैं, जो वहां कुल-मिलाकर 20% के करीब है, और कुछ जिलों में तो मुस्लिमों की आबादी बहुत अधिक है।

लेकिन भाजपा इससे ठीक विपरीत दिशा में चली गई है और इस मतदाता-समूह को लगभग पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मुसलमानों को यूपी में सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है।

अंतर इतना ही आया है कि उन्हें सांस्कृतिक रूप से अलग-थलग या राजनीतिक रूप से विशिष्ट मानने से इनकार किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, बड़ी संख्या में राज्य-वित्त पोषित मदरसों को अब सामान्य स्कूलों के जैसा ही पाठ्यक्रम रखने को कहा जा रहा है, अन्यथा मान्यता रद्द करने की चेतावनी दी जा रही है।

भाजपा की सुधारवादी नीतियां कथित तौर पर उसके लिए मुस्लिम समुदाय के कुछ वर्गों, विशेषकर महिलाओं का गुप्त समर्थन भी जुटा रही है। भाजपा ने अपनी कई सामाजिक कल्याण योजनाओं के साथ वंचित वर्गों तक भी पहुंच बनाई है। इसने राज्य में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के परंपरागत समर्थन को कम किया है।

भाजपा ने वंशवादी क्षेत्रीय दलों के विपरीत अपनी राष्ट्रवादी और भ्रष्टाचार-मुक्त साख का भी राग अलापा है। राम मंदिर के भव्य उद्घाटन के साथ ही भाजपा ने अपने हिंदू वोटरों पर पकड़ मजबूत कर ली है। विपक्षी इंडिया गठबंधन की तमाम कोशिशों के बावजूद बसपा ने उसका हिस्सा बनने से इनकार कर दिया है।

यह स्थिति भाजपा की सत्ता में वापसी की कोशिशों में मददगार हो सकती है। भाजपा को इस बार यूपी में कुल कितनी सीटें मिलेंगी, यह उसके द्वारा अपने चुनाव-अभियान के क्रियान्वयन और सात चरणों वाले चुनाव के दौरान बदलते राजनीतिक माहौल पर निर्भर करेगा। 19 अप्रैल से 1 जून तक यह चुनाव इस बार बहुत ही लम्बा चलने वाला है।

भाजपा को इस बार उत्तर प्रदेश की कुल 80 में से कितनी सीटें मिलेंगी, यह बहुत कुछ उसके द्वारा अपने चुनाव-अभियान के सुचारु क्रियान्वयन और सात चरणों वाले चुनाव के दौरान बदलते राजनीतिक माहौल पर निर्भर करेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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