संजय कुमार का कॉलम:जीतने वाले गठबंधन की हार होने की धारणा कैसे बनी ?

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संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार - Dainik Bhaskar

संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार

चुनाव नतीजों से संकेत मिलता है कि एनडीए गठबंधन स्पष्ट विजेता है, जबकि अच्छा लड़ने के बावजूद इंडिया गठबंधन बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाया। लेकिन इन नतीजों को बहुत अलग तरीके से देखा जा रहा है। ऐसा संकेत दिया जा रहा है कि हारने वाला चुनाव जीत गया है, जबकि जीतने वाला चुनाव हार गया है।

ऐसा मुख्य रूप से इसलिए हुआ क्योंकि नतीजे उम्मीदों की पृष्ठभूमि में देखे गए थे। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के बहुत अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद थी। प्रधानमंत्री ने खुद अबकी बार 400 पार का नारा दिया था। जबकि कई लोगों को लगता था कि कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन का प्रदर्शन खराब होगा, क्योंकि उसमें कई आंतरिक विरोधाभास थे।

अंत में भाजपा अपने दम पर बहुमत हासिल करने में नाकाम रही और एनडीए 300 के आंकड़े से नीचे गिर गया। दूसरी ओर, कांग्रेस 100 के आंकड़े से सिर्फ एक सीट पीछे रह गई जबकि उसके सहयोगियों ने 98 सीटें जीतीं। इस सबने चुनावों का नैरेटिव बदल दिया।

एनडीए और इंडिया गठबंधन में दो महत्वपूर्ण भेद दिखाई दिए। सबसे पहले दोनों गठबंधनों की संरचना देखें। भाजपा की सीटें एनडीए गठबंधन का 80% हिस्सा थीं, जबकि कांग्रेस की सीटें इंडिया गठबंधन के 40% से थोड़ा अधिक थीं। दोनों गठबंधनों का हिस्सा न होने वालों की संख्या 18 तक सीमित रह गई थी।

दूसरे, गैर-भाजपा एनडीए की संख्या 53 तक बढ़ गई (2019 में 50 की तुलना में) और भाजपा को 63 सीटों का नुकसान हुआ। दूसरे शब्दों में, एनडीए सिकुड़ गया क्योंकि उसके मुख्य नेता पर्याप्त प्रदर्शन करने में विफल रहे। वहीं इंडिया एक नया गठबंधन था- हालांकि वह कुछ हद तक संशोधित यूपीए ही था।

कांग्रेस ने अपनी सीटों में 80% की वृद्धि देखी और वह 52 से 99 तक पहुंच गई। इंडिया गठबंधन में अन्य दलों ने भी अपनी सीटों के हिस्से में वृद्धि देखी। इनमें प्रमुख सपा और टीएमसी थीं। इस प्रकार इंडिया के लगभग हर सदस्य ने लाभ उठाया और उसके समग्र प्रदर्शन में योगदान दिया।

भाजपा की सीटों में गिरावट मुख्य रूप से हिंदी पट्टी के राज्यों यूपी, राजस्थान और बिहार में रही, वहीं महाराष्ट्र, कर्नाटक और बंगाल में भी उसे खासा नुकसान हुआ। तेलंगाना व ओडिशा में उसने कुछ भरपाई की, लेकिन वह घाटे की तुलना में कहीं कम रही।

जो लोग भाजपा को फिर से चुनने के पक्ष में थे, उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व, सुशासन और देश के विकास के आधार पर इसे उचित ठहराया। दूसरी ओर, मौजूदा सरकार के तीसरे कार्यकाल का विरोध करने वालों में से अधिकांश ने रोजगार और महंगाई को मुख्य कारण बताया। यह ध्रुवीकरण नतीजों में साफ तौर पर दिखाई देता है।

सरकार से संतुष्ट लोगों में से तीन-चौथाई से अधिक ने भाजपा और उसके सहयोगियों को वोट दिया। मौजूदा सरकार से कुछ हद तक संतुष्ट लोगों में से आधे ने एनडीए को वोट दिया। सरकार से असंतुष्ट लोगों में से तीन-चौथाई से अधिक ने कांग्रेस और उसके सहयोगियों को वोट दिया।

लगभग 50% मतदाताओं ने एक पार्टी के लिए मतदान किया, जबकि एक-तिहाई से थोड़े अधिक ने उम्मीदवार पर ध्यान केंद्रित किया। इन चुनावों में पार्टी वोटिंग की प्राथमिकता में गिरावट आई है। हर दस मतदाताओं में से सिर्फ एक ने नेतृत्व के फैक्टर को ध्यान में रखा।

यदि 2024 और 2019 के आंकड़ों की तुलना की जाए तो प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की पसंद में स्पष्ट रूप से 5% अंकों की गिरावट आई है। 2024 में पसंदीदा प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच का अंतर 2019 की तुलना में 9% अंकों से कम हो गया है। जिन लोगों ने भाजपा और उसके सहयोगियों को वोट दिया, उनके लिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व का प्रभाव अधिक रहा।

वेलफेयर योजनाओं का चुनावी नतीजों पर सीमित ही प्रभाव रहा। तीन-चौथाई से ज्यादा मतदाताओं को सरकार की आवास योजनाओं से कोई फायदा नहीं मिला था। हर दस में से सात ने कहा कि उन्हें आयुष्मान भारत से कोई लाभ नहीं। दो-तिहाई को मनरेगा से सरोकार नहीं। सिर्फ पीडीएस व उज्ज्वला के ही अधिक लाभार्थी थे।

मोटे तौर पर भाजपा ने दक्षिण और पूर्व में अच्छा प्रदर्शन किया, जिससे यह देश भर में समान रूप से फैली हुई पार्टी बन गई। लेकिन इसी प्रक्रिया में, उसने उत्तर भारत के राज्यों में महत्वपूर्ण समर्थन भी खो दिया।

इसका मतलब है कि भाजपा के सामाजिक आधार के राष्ट्रीयकरण की चल रही प्रक्रिया रुक गई है। भाजपा अब खुद को ऐसी स्थिति में पाएगी, जहां उसके वोटर विभिन्न राज्यों में अलग-अलग सामाजिक समूहों से आ रहे हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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