अभय कुमार दुबे का कॉलम:भाजपा की सीटों में सेंध किन ‘हिंदुओं’ के वोट ने लगाई

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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर - Dainik Bhaskar

अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर

चुनाव परिणामों ने ‘हिंदू राजनीतिक एकता’ के प्रोजेक्ट को धक्का पहुंचाया है। भाजपा और संघ के समर्थकों के बीच इसकी अभिव्यक्ति इस रूप में हो रही है कि ‘देखिए, हिंदू ही हिंदू को हराते हैं।’ अयोध्या के वोटरों की जिस तरह लानत-मलामत हो रही है, वह इसका दूसरा प्रमाण है।

यहां प्रश्न यह है कि किस ‘हिंदू’ ने किस ‘हिंदू’ को हराया है? सीएसडीएस-लोकनीति के ताजे चुनाव-उपरांत सर्वेक्षण के आंकड़ों पर जाएं तो स्पष्ट रूप से ऊंची जातियों के हिंदू वोटरों ने भाजपा के प्रभाव-क्षेत्र, खासकर यूपी में, भाजपा का बड़े पैमाने पर साथ दिया। लेकिन दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों से भाजपा को पसंद कर रही पिछड़ी और दलित जातियों के वोटरों ने इस बार कम वोट दिए।

राम जन्मभूमि आंदोलन के समय से ही भाजपा और संघ परिवार की तरफ से कमजोर समझी जाने वाली जातियों और समुदायों को आश्वासन दिया जाता रहा है कि उन्हें ऊंची जातियों के मुकाबले राजनीति और अर्थव्यवस्था में ‘लेवल प्लेइंग फील्ड’ (समान अवसर) मिलेगा, क्योंकि संघ किसी के साथ जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करता है। लगता है समाज की बहुसंख्या बनाने वाली इन जातियों को इस दावे पर यकीन नहीं रह गया है। क्या इसका कोई आधार है?

चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया द्वारा दिए टिकटों और जीते उम्मीदवारों पर तुलनात्मक गौर करते ही इस प्रश्न का जवाब मिलने लगता है। ऊंची जातियों को एनडीए ने 31.3% टिकट दिए, और इंडिया ने 19.2%। जीत-हार में भी यही अंतर दिखना स्वाभाविक है।

एनडीए के सांसदों की 33.2% संख्या ऊंची जातियों में से है और इंडिया के लिए महज 12.4%। ओबीसी जातियों से एनडीए ने 25.5% टिकट दिए। इंडिया ने ज्यादा यानी 26.9 फीसदी ओबीसी टिकट बांटे। एनडीए के ओबीसी सांसद अब 26.2 और इंडिया के 30.7% हैं।

प्राथमिकता का यह अंतर दलित जातियों में और स्पष्टता से उभरता है। जाहिर है कि सुरक्षित सीटों पर दोनों मोर्चों को दलित ही खड़े करने थे। लेकिन इंडिया ने दलितों को कई सामान्य सीटों पर भी खड़ा किया। फैजाबाद (अयोध्या) की सीट पर अवधेश पासी और पूर्वी दिल्ली पर कुलदीप कुमार का टिकट इसका सिर्फ एक प्रमाण है।

नतीजा यह निकला कि इस बार इंडिया के पास दलित सांसद 15% आबादी से ज्यादा (17.8%) हैं। अल्पसंख्यकों में ईसाइयों और सिखों (मुसलमानों को तो भाजपा टिकट देती नहीं) में भी इंडिया ने एनडीए से ज्यादा (0.2/2.7 और 0.4/2.4)% टिकट दिए। एनडीए के पास इनका एक भी सांसद नहीं है और इंडिया के पास 3.5 व 5.0% सांसद हैं।

जब इन आंकड़ों को दलित और ओबीसी जातियों के बुद्धिजीवी और नेता देखेंगे, तो उन्हें भाजपा या एनडीए को कम वोट देने की अपनी प्राथमिकता पर संतोष होगा। उनकी यह धारणा मजबूत होगी कि उन्हें ‘लेवल प्लेइंग फील्ड’ देने वाली भाजपा अंतत: ब्राह्मण-बनिया पार्टी ही साबित हो रही है।

यहां इस प्रश्न पर भी गौर करने की जरूरत है कि जब विपक्ष के नेताओं (खासकर राहुल गांधी ने) संविधान की किताब हाथ में लेकर यह प्रचार करना शुरू किया कि भाजपा को 400 सीटें इसलिए चाहिए कि संविधान और आरक्षण के प्रावधानों को बदला जा सके, तो दलितों, पिछड़ों और अति पिछड़ों ने इस आरोप को तत्परता से क्यों सही मान लिया?

इस प्रश्न का एक उत्तर भाजपा सरकार द्वारा किए गए उस संविधान-संशोधन में निहित है, जो उसने ईडब्ल्यूएस (आर्थिक आधार पर कमजोर वर्ग) कोटे की स्थापना के रूप में तकरीबन पांच साल पहले किया था। क्या उस समय आरक्षण के पारंपरिक लाभार्थियों ने खुशी जताई थी? नहीं।

यह सीधे-सीधे ऊंची जातियों को आरक्षण के दायरे में पिछले दरवाजे से घुसाने का हथकंडा बताया गया था, लेकिन वे कुछ करने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने इस संशोधन को देखा-समझा और वक्त का इंतजार करते रहे।

भाजपा चाहे तो देख सकती है कि साठ के दशक से ही उसे वोट करने वाले लोधियों ने इस बार उसे पसंद क्यों नहीं किया। हर बार उसे वोट करने वाले पासियों ने इस बार कमल पर बटन क्यों नहीं दबाया। गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों ने हर बार की तरह समर्थन क्यों नहीं दिया।

एससी वाले निर्वाचन क्षेत्रों ने भाजपा ने इस बार तीस से ज्यादा वे सीटें हारी हैं जो पिछली बार उसने जीती थीं। उसे उम्मीद थी कि मायावती के समर्थन आधार से कुछ न कुछ वोट तो मिलेंगे ही, पर सारे वोट साइकिल या हाथ पर गए।

हिंदू राजनीतिक एकता के बिखरने का एक बड़ा परिणाम यह निकला कि मुसलमान वोटरों की खत्म हो चुकी प्रभावशीलता ने वापसी कर दिखाई। इसी प्रभावशीलता को भाजपा वाले ‘मुस्लिम वीटो’ के नाम से पेश करते रहे हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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