के. एस. तोमर का कॉलम:संसद में नेता-प्रतिपक्ष के रूप में राहुल के सामने नई चुनौती

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के. एस. तोमर वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक - Dainik Bhaskar

के. एस. तोमर वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक

राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) द्वारा संसद में विपक्ष का नेता बनने के प्रस्ताव को स्वीकारने से दोहरे उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। सबसे पहले तो उन्हें कानून के तहत एक संवैधानिक पद प्राप्त होगा, जिससे वे 2029 के चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सीधे प्रतिद्वंद्वी के रूप में अपनी स्थिति मजबूत बना सकेंगे।

इससे मोदी को भी उन्हें अतीत के विपरीत गंभीरता से लेने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। दूसरे, संसद के अंदर और बाहर प्रधानमंत्री के सबसे कड़े आलोचक होने के बावजूद, पिछले एक दशक में अक्सर राहुल की आवाज को दबा दिया जाता रहा है।

यह परिदृश्य अब बदलने वाला है, क्योंकि भाजपा इस बार 240 सांसदों की कम ताकत के साथ लोकसभा में प्रवेश कर रही है। इसके विपरीत, कांग्रेस ने अपनी ताकत लगभग दोगुनी कर ली है। उसके 52 से बढ़कर 99 सांसद हो गए हैं और तीन निर्दलीय भी उसके साथ हैं।

यह मजबूत उपस्थिति कांग्रेस को भाजपा की रणनीति का अधिक प्रभावी ढंग से मुकाबला करने में सक्षम बनाएगी। यदि भाजपा की शोर मचाने वाली ब्रिगेड राहुल को चुप कराने का प्रयास करती है, तो कांग्रेस के सांसद भी प्रधानमंत्री के भाषणों को बाधित करके जवाबी हमला कर सकते हैं।

कुल मिलाकर संसदीय शक्ति-संतुलन में भी बदलाव आया है। एनडीए की संयुक्त ताकत घटी है और इंडिया की ताकत बढ़ी है। उन्होंने कई नई सीटें जीती हैं, जो सत्तारूढ़ पार्टी के लिए बड़ी चुनौती पेश करने वाली है। अतीत में इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुड़िया’ कहा गया था, फिर उनके पोते को ‘पप्पू’ और ‘शहजादा’ के रूप में पेश किया गया है।

कार्ल मार्क्स ने कहा था कि इतिहास पहले खुद को त्रासदी के रूप में दोहराता है और फिर प्रहसन के रूप में, लेकिन राहुल गांधी के मामले में ऐसा नहीं हुआ है। एक राजनेता के रूप में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी है और वे विपक्ष के नेता के रूप में उभरे हैं। राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी और राहुल गांधी के हालिया पुनरुत्थान के बीच स्पष्ट समानताएं देखी हैं।

जनता पार्टी से चुनाव हारने के बाद इंदिरा गांधी को ‘बेचारी’ कहकर पुकारा गया था, जो आपातकाल के प्रति रोष का नतीजा था। 1960 के दशक के उत्तरार्ध में, उन्हें उनके आलोचकों द्वारा ‘गूंगी गुड़िया’ कहा जाता था, लेकिन उन्होंने 1980 में सत्ता में मजबूती से वापसी की। ऐसी ही वापसी 2024 में राहुल गांधी ने भी की है।

उन्होंने कन्याकुमारी से कश्मीर तक 150 दिनों में 4,080 किलोमीटर की अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान आम लोगों का दिल जीतने पर ध्यान केंद्रित किया। इस यात्रा के दौरान राहुल ने अपने निजी संघर्षों को उजागर किया और इस बात पर जोर दिया कि जांच एजेंसियां उन्हें परेशान कर रही हैं।

यह भी बताया कि उनसे 50 घंटे तक पूछताछ की गई, लेकिन कुछ भी नहीं मिला। उन्होंने सरकार पर आम लोगों की परेशानियों, गांवों की समस्याओं, बढ़ती असमानता, किसानों के अधिकारों, युवाओं की बेरोजगारी, जरूरी वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों और संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने की अनदेखी करने का आरोप लगाया।

आम लोगों ने देखा कि जिसे गांधी परिवार का राजकुमार कहा गया था, वह चिलचिलाती धूप और कड़ाके की ठंड में पैदल चल रहा है और उनकी समस्याएं सुन रहा है। लोगों की धारणाएं राहुल के प्रति बदलीं और उनके प्रति सहानुभूति उत्पन्न हुई।

बहरहाल, संसद में विपक्ष के नेता (एलओपी) के रूप में राहुल को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। उन्हें एक समर्पित और पूर्णकालिक नेता बनना होगा। इस महत्वपूर्ण भूमिका को अनमने ढंग से नहीं निभाया जा सकता। उन्हें सहयोगी दलों के साथ नियमित संपर्क भी रखना होगा।

विविध राजनीतिक समूहों के साथ मजबूत संबंध बनाना और बनाए रखना आवश्यक है। उनका दृष्टिकोण आक्रामक किंतु परिपक्व होना चाहिए। संसद में मुख्य मुद्दों को प्रभावी ढंग से संबोधित करने की उनकी क्षमता उनकी सफलता का एक महत्वपूर्ण फैक्टर बनेगी।

राहुल गांधी के सामने बड़ी चुनौती सरकार को जवाबदेह ठहराने की होगी। इसके लिए विभिन्न मसलों पर विपक्ष के रुख को अच्छे से व्यक्त करना होगा। विपक्षी दलों में आम सहमति का निर्माण और समन्वित प्रयास भी जरूरी होंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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