रुचिर शर्मा का कॉलम:बाजार को राजनीति में नए चेहरे पसंद हैं

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रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर - Dainik Bhaskar

रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर

यह बात लंबे समय से कही जा रही है कि 2024 लोकतंत्र के लिए एक ऐतिहासिक वर्ष होगा, जिसमें दुनिया भर में 30 से अधिक राष्ट्रीय चुनाव होंगे। लेकिन टिप्पणीकारों ने इन चुनावों के आर्थिक प्रभाव पर हाल में ही ध्यान केंद्रित करना शुरू किया है। भारत, मैक्सिको और दक्षिण अफ्रीका के चुनावी-नतीजों पर बाजार की तीखी प्रतिक्रियाओं ने कुछ बुनियादी सवाल खड़े किए हैं।

क्या अर्थव्यवस्थाएं मजबूत बहुमत वाली सरकार या बड़े गठबंधन के तहत बेहतर प्रदर्शन करती हैं? उनका प्रदर्शन वामपंथी पार्टी के तहत बेहतर होता है या दक्षिणपंथी पार्टी के तहत? मौजूदा नेता के तहत या नए चेहरे के तहत? इसका उत्तर देने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि बाजार किसी विचारधारा से प्रेरित नहीं होते।

उन्हें राजनीतिक व्यवस्था नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था की संभावनाओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। मेरी रिसर्च के डेटा बताते हैं कि सरकार कमजोर है या मजबूत, वामपंथी है या दक्षिणपंथी, अर्थव्यवस्था पर इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। लेकिन नेतृत्व के रूप में नए चेहरे जरूर उच्च-विकास और बेहतर-रिटर्न के साथ मजबूती से जुड़े हुए हैं।

सबसे पहले गठबंधन सरकारों के आर्थिक रिकॉर्ड पर विचार करें। इतिहास बताता है कि खंडित संसद हमेशा ही अर्थव्यवस्था के लिए बुरी नहीं होती। भारत, ब्राजील और इटली जैसे देशों में, अल्पमत की सरकारों के तहत अर्थव्यवस्था ने बेहतर प्रदर्शन किया है।

उदाहरण के लिए, भारत ने नीति-निर्माण के लिए थोड़ा कम समाजवादी दृष्टिकोण तभी अपनाया, जब वह 1970 के दशक के अंत में एक सच्चा बहुदलीय लोकतंत्र बन गया और अगले दशकों में प्रति व्यक्ति आय वृद्धि में जड़ता टूटी।

इस साल चुनाव के दिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने की खबर पर बाजार में तेजी से गिरावट आई। लेकिन तब से बाजार में उछाल कायम है, शायद यह समझते हुए कि गठबंधन सरकारों का मतलब हमेशा ही कमजोर विकास नहीं होता। वामपंथी कहे जाने वाले दलों के लिए भी यही सच है। 24 देशों में 173 सरकारों के एक अध्ययन से पता चलता है कि शेयर बाजार के रिटर्न में कोई अंतर नहीं होता, फिर चाहे वहां वामपंथी या दक्षिणपंथी मानी जाने वाली पार्टी सत्ता में हो।

ये सच है कि जब वामपंथी विचारधारा वाले राजनेता चुने जाते हैं तो निवेशक अक्सर वहां से बोरिया-बिस्तर समेट लेते हैं। लेकिन उसके बाद वे यह आकलन भी करते हैं कि वह नेता पद पर रहते हुए क्या करता है। सबसे यादगार मामला ब्राजील के तेजतर्रार नेता लूला दा सिल्वा का था।

2002 में अपना कार्यकाल शुरू होने से पहले उन्होंने ब्राजील के कर्ज पर डिफॉल्ट की धमकी देकर निवेशकों को डरा दिया था, लेकिन पद पर आते ही वे आर्थिक रूप से रूढ़िवादी हो गए। मैक्सिको में भी ऐसा ही परिदृश्य बन सकता है, जहां क्लाउडिया शिनबाम की भारी चुनावी जीत उम्मीदों से बढ़कर रही।

बाजार को डर है कि मोरेनो पार्टी सत्ता में वापस आकर अपने समाजवादी एजेंडे को दोगुना कर देगी। लेकिन शिनबाम पद पर रहते हुए क्या करती हैं, यह अभी देखा जाना बाकी है। अमेरिका इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि वॉल स्ट्रीट कितनी गैर-पक्षपाती हो सकती है।

1860 के दशक के उत्तरार्ध से- जब दो-पक्षीय राजनीतिक व्यवस्था मजबूत होने लगी थी- शेयर बाजार ने डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों के कार्यकाल में औसतन 68 प्रतिशत और रिपब्लिकन के कार्यकाल में 52 प्रतिशत रिटर्न दिया है।

हालांकि यह अंतर किसी छिपे हुए पार्टी-पूर्वाग्रह को प्रकट नहीं करता है। आंकड़ों पर करीब से नजर डालने से पता चलता है कि जब डेमोक्रेट सत्ता में थे, तब आर्थिक परिस्थितियां (मुख्य रूप से जीडीपी वृद्धि और मुद्रास्फीति) ज्यादा अनुकूल थीं। यह काफी हद तक संयोग की वजह से था।

इससे हम एक ऐसे राजनीतिक फैक्टर पर आते हैं, जो वास्तव में मायने रखता है : नए चेहरे। 1980 के दशक के उत्तरार्ध से 50 से अधिक लोकतंत्रों का अध्ययन करने पर मुझे 70 से अधिक नेता मिले, जो एक कार्यकाल से अधिक समय तक टिके रहे।

अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस (जिनमें से सभी में जल्द ही चुनाव होने वाले हैं) सहित विकसित देशों में, जीडीपी वृद्धि नेता के पहले कार्यकाल में 2.9 प्रतिशत से गिरकर दूसरे कार्यकाल में 2.6 प्रतिशत और दुर्लभ तीसरे कार्यकाल में 2.4 प्रतिशत हो गई।

उभरते देशों में- जहां नेता अधिक प्रभाव डाल सकते हैं क्योंकि उन्हें कम संस्थागत बाधाओं का सामना करना पड़ता है- औसतन वृद्धि पहले कार्यकाल में 5.3 प्रतिशत से गिरकर दूसरे कार्यकाल में 4.4 प्रतिशत और तीसरे कार्यकाल में केवल 3.5 प्रतिशत रह गई।

ऐसा लगता है कि समय के साथ नेताओं के नीरस होते जाने से बाजार में गिरावट आती है। उभरती अर्थव्यवस्थाओं में, शेयर बाजार ने एक टिकाऊ नेता के पहले कार्यकाल के दौरान प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में 20 प्रतिशत बेहतर प्रदर्शन किया, दूसरे कार्यकाल में औसत रिटर्न दिया और तीसरे कार्यकाल के दौरान काफी कम प्रदर्शन किया।

अमेरिका में भी यह अंतर चौंकाने वाला है। 1860 के दशक के उत्तरार्ध से वहां पर आठ राष्ट्रपतियों ने दो कार्यकाल पूरे किए हैं, जिसमें पहले कार्यकाल में बाजार का औसत रिटर्न 80 प्रतिशत और दूसरे कार्यकाल में मात्र 29 प्रतिशत रहा। ध्यान रहे कि अर्थव्यवस्थाओं और बाजारों का भाग्य कई फैक्टर्स से निर्धारित होता है। राजनीति इसका एक आयाम भर है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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