एन. रघुरामन का कॉलम:क्या मोबाइल फोन हमें ‘इम्मोबाइल’ बना रहा है

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

"इन दिनों तुम कुछ नहीं करते। बस आलसी हो गए हो।’ अपने किशोर लड़के से एक मां यह कहती है और फिर लड़का अपने रोज के और महीने में किए सारे काम गिनाने लगता है। वो कहता है, “अरे वाकई! आपको क्या लगता है कि सब्जियां और किराने का सामान कौन लाता है, पेट् के लिए डॉक्टर से अपॉइंटमेंट कौन लेता है, आपके लिए टैक्सी कौन बुक करता है, न जाने कितनी बार आप खाना बनाना शुरू करने के बाद रोजमर्रा की जीचें जैसे नमक और तेल भूल जाती हैं, फिर मैं उन्हें महज तीन से पांच मिनट में मंगवा देता हूं और कभी-कभी हम घर पर जो पिज्जा मंगाते हैं, आप वो भी भूल गईं?’

अगर आप ऐसी बातचीत सुनें तो लगेगा, कितनी खुशनसीब मां हैं, जो ऐसा आज्ञाकारी बेटा मिला है। पर कितने लोग जानते हैं कि उस लड़के ने सारे काम मोबाइल फोन की मदद से किए हैं और फोन के साथ ही जन्मी व बड़ी हो रही जेन ज़ी को लगता है कि यही घर के कामकाज हैं।

जबकि मां उसकी शारीरिक निष्क्रियता (इम्मोबाइल) की बात कर रही थीं ना कि रोजमर्रा के काम की, जिसमें वो थोड़ी-बहुत मदद करता है, वो भी मोबाइल की मदद से। अगर आपको लगता है कि ये घर-घर की कहानी है, तो आप सही हैं क्योंकि हम भारतीय धीरे-धीरे मोबाइल के बिछाए खतरनाक जाल में फंसते जा रहे हैं।

साल 2000 से 2022 के बीच दुनिया के 197 देशों में हुए शोध के परिणाम इस मंगलवार को लांसेट ग्लोबल हेल्थ मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुए, इसमें बताया गया कि हर दूसरा भारतीय वयस्क शारीरिक रूप से निष्क्रिय (इम्मोबाइल) है और डब्ल्यूएचओ की गाइडलाइन पर खरा नहीं उतरता।

यहां तक कि 52.6% महिला व 38.4% पुरुष सुस्त जीवनशैली जी रहे हैं। शोध का सबसे चिंताजनक पहलू भारतीय वयस्कों की शारीरिक निष्क्रियता में तेज़ी से हुई वृद्धि है, जो साल 2000 में 22.4% थी तो 2022 में बढ़कर 45.4% हो गई है। ये ट्रेंड जारी रहा, तो निष्क्रियता का स्तर 2030 तक बढ़कर 55% हो जाएगा।

इन दिनों, वजन उठाने वाले व्यायाम की कमी से हड्डियां कमजोर हो रही हैं, जिससे ऑस्टियोपोरोसिस हो रहा है, वहीं खराब बॉडी पॉश्चर से पीठ के निचले हिस्से में गंभीर दर्द तो निष्क्रियता से कोर मसल्स कमजोर पड़ रही हैं, नतीजतन हड्डियों के डॉक्टर के पास ज्यादा मरीज देखे जा रहे हैं।

इस निष्क्रिय जीवनशैली का संबंध उच्च रक्तचाप, डायबिटीज़, मोटापे से भी है। दुर्भाग्य से युवा पीढ़ी ज्यादा प्रभावित है क्योंकि वे कंप्यूटर्स पर ज्यादा काम करते हैं और व्यक्तिगत मेल-मिलाप कम है। किसी भी रहवासी सोसायटी की लिफ्ट में कोई न कोई युवा ये कहते मिल जाएगा कि अगले पांच मिनट में मेरी ऑनलाइन मीटिंग है।

शुक्रवार को सुबह करीब 8 बजे जब मैं अपनी हाउसिंग कॉलोनी की लिफ्ट में गया, तो वहां एक नौजवान किसी से कह रहा था, “मैं बस भगवान से दुआ कर रहा था कि आज मुझे वर्क फ्रॉम मिल जाए और मुझे मिल गया। मेरी स्नीकर्स सफेद हैं और मैं उन्हें बारिश में खराब नहीं करना चाहता।’ मुझे ताज्जुब हुआ कि बारिश कबसे गंदी होने लगी और स्नीकर्स थोड़ी ना हमेशा सफेद रहेंगी। हम कब समझेंगे कि स्नीकर्स हमारे पैरों को गंदा होने से बचाने, खुद गंदी होने और हमें कसरत के लिए प्रेरित करने ही होती हैं।

ऐसी दुनिया की कल्पना करें जो मोबाइल से मुक्त हो, जिसमें ऊपर बताया लड़का अपनी मां के रोजमर्रा के कामों में मदद के लिए घर से कम से कम आधा दर्जन बार बाहर गया हो। सहूलियत की चाह में छोटे-छोटे बच्चों तक की शारीरिक गतिविधियां सिमट गई हैं और स्क्रीन से चिपके होने से उनके शरीर (आंखें भी) को ज्यादा नुकसान पहुंच रहा है।

फंडा यह है कि मोबाइल और जूते सहूलियत के लिए हैं ना कि इम्मोबाइल बनाने के लिए।

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